विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले रामन पहले एशियाई थे डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

भारतीय वैज्ञानिक सर सी.वी. रामन द्वारा अपनी खोज को सार्वजनिक किए जाने की याद में हर वर्ष 28 फरवरी को मनाया जाने वाला राष्ट्रीय विज्ञान दिवस देश के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी कैलेंडर का एक महत्वपूर्ण अंग है।पहला राष्ट्रीय विज्ञान दिवस 28 फरवरी, 1987 को मनाया गया था। इस दिवस को मनाने के पीछे का उद्देश्य लोगों में विज्ञान के प्रति रूचि बढ़ाने और समाज में जागरूकता लाना है। इस दिन देशभर के राष्ट्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी परिषद और विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय कई कार्यक्रमों का आयोजन करती हैं। इतना ही नहीं भारत सरकार वैज्ञानिकों को उनके सराहनीय कार्यों के लिए सम्मानित करती है। साथ ही युवा और छात्र विज्ञान के क्षेत्र में बढ़चढ़ कर आगे आएं, इसके लिए योजनाओं की घोषणा होती है। उनका जन्म 7 नवंबर 1888 को तमिलनाडु के तिरुचिलापल्ली में हुआ था। उनके पिता गणित और भौतिकी के लेक्चरर थे। उन्होंने विशाखापट्टनम के सेंट एलॉयसिस एंग्लो-इंडियन हाईस्कूल और तत्कालीन मद्रास के प्रेसीडेन्सी कॉलेज से पढ़ाई की। प्रेसीडेन्सी कॉलेज से उन्होंने 1907 में एमएससी पूरी की। यूनिवर्सिटी ऑफ मद्रास में उन्हें फिजिक्स में गोल्ड मेडल मिला। 1907 से 1933 के बीच उन्होंने कोलकाता में इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ साइंस में काम किया। इस दौरान उन्होंने फिजिक्स से जुड़े कई विषयों पर गहन रिसर्च की। पारदर्शी पदार्थ से गुजरने पर प्रकाश की किरणों में आने वाले बदलाव पर की गई उनकी महत्वपूर्ण खोज को रमन प्रभाव (रमन इफेक्ट) के नाम से जाना गया। उनकी खोज रमन इफेक्ट का उपयोग आज पूरी दुनिया में हो रहा है। आज के दिन ही प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक सीवी रमन ने रमन इफेक्ट का ऐलान किया था। जिसके लिए उन्हें साल 1930 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसके बाद साल 1986 से हर साल 28 फरवरी का दिन सीवी रमन द्वारा रमन इफेक्ट की खोज के लिए राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के तौर पर मनाया जाएगा। इस बार की थीम हैएसटीआई का भविष्य: शिक्षा, स्किल और काम पर प्रभाव।चंद्रशेखर वेंकटरमन ने अपने खोज में बताया था कि एक पारदर्शी पदार्थ से गुजरने पर प्रकाश की किरणों के तरंगदैर्ध्य में बदलाव आता है. उन्होंने जो प्रकाश प्रकीर्णन के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया इसके लिए उन्हें 1930 में नोबेल पुरस्कार दिया गया और 1954 में भारतीय रत्न से भी नवाजा गया था. विज्ञान मानव जाति की सामान्य विरासत है। विज्ञान आज मानव जाति का सबसे बड़ा उद्यम है, जो ज्ञान के तेज विकास, बुनियादी जरूरते, आत्मनिर्भरता और शांति, मानव जाति की प्रगति व समृध्दि पर निर्भर करती है। भारत अपने समृध्द सांस्कृतिक विरासत के साथ सीखने की परंपरा तथा मूल विचार धारा को समाहित किये है। 100 वर्ष पहले सर चंद्रशेखर वेंकट रमन ने ‘‘रमन प्रभाव” की खोज विश्व को प्रदान की थी। रामन प्रभाव’ की खोज की कहानी बड़ी रोचक है। 1920 के दशक में एक बार जब रामन जलयान से स्वदेश लौट रहे थे तो उन्होंने भूमध्य सागर के जल में उसका अनोखा नीला व दूधियापन देखा। कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुंचकर रामन ने पार्थिव वस्तुओं में प्रकाश के बिखरने का नियमित अध्ययन शुरू किया। लगभग सात वर्ष बाद रामन अपनी उस खोज पर पहुंचे, जो ‘रामन प्रभाव’ के नाम से विख्यात हुई। इस तरह रामन प्रभाव का उद्घाटन हो गया। भारत से अंतरिक्ष मिशन चन्द्रयान ने चांद पर पानी होने की घोषणा की तो इसके पीछे भी रमन स्पैक्ट्रोस्कोपी का ही कमाल था।फोरेंसिक साइंस में तो रमन प्रभाव का खासा उपयोग हो रहा है और यह पता लगाना आसान हो गया है कि कौन-सी घटना कब और कैसे हुई थी। दरअसल, जब खास तरंगदैर्ध्य वाली लेजर बीम किसी चीज पर पड़ती है तो ज्यादातर प्रकाश का तरंगदैर्ध्य एक ही होता है। लेकिन हजार में से एक ही तरंगदैर्ध्य मे परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन को स्कैनर की मदद से ग्राफ के रूप में रिकॉर्ड कर लिया जाता है। स्कैनर में विभिन्न वस्तुओं के ग्राफ का एक डाटाबेस होता है। हर वस्तु का अपना ग्राफ होता है, हम उसे उन वस्तुओं का फिंगर-प्रिन्ट भी कह सकते हैं। जब स्कैनर किसी वस्तु से लगाया जाता है तो उसका भी ग्राफ बन जाता है। और फिर स्कैनर अपने डाटाबेस से उस ग्राफ की तुलना करता है और पता लगा लेता है कि वस्तु कौन-सी है। हर अणु की अपनी खासियत होती है और इसी वजह से रमन स्पैक्ट्रोस्कोपी से खनिज पदार्थ, कार्बनिक चीजों, जैसे- प्रोटीन, डीएनए और अमीनो एसिड का पता लग सकता है।सीवी रमन ने जब यह खोज की थी तो उस समय काफी बड़े और पुराने किस्म के यंत्र थे। खुद रामन ने भी रमन प्रभाव की खोज इन्हीं यंत्रों से की थी। आज रमन प्रभाव ने प्रौद्योगिकी को बदल दिया है। अब हर क्षेत्र के वैज्ञानिक रमन प्रभाव के सहारे कई तरह के प्रयोग कर रहे हैं। इसके चलते बैक्टीरिया, रासायनिक प्रदूषण और विस्फोटक चीजों का पता आसानी से चल जाता है। अब तो अमेरिकी वैज्ञानिकों ने इसे सिलिकॉन पर भी इस्तेमाल करना आरंभ कर दिया है। ग्लास की अपेक्षा सिलिकॉन पर रमन प्रभाव दस हजार गुना ज्यादा तीव्रता से काम करता है। इससे आर्थिक लाभ तो होता ही है साथ में समय की भी काफी बचत हो सकती है।कलकत्ता विश्वविद्यालय में वर्ष 1917 में भौतिकी के प्राध्यापक का पद सृजित हुआ तो वहां के कुलपति आशुतोष मुखर्जी ने उसे स्वीकार करने के लिए सीवी रमन को आमंत्रित किया। रमन ने उनका निमंत्रण स्वीकार करके उच्च सरकारी पद से त्याग-पत्र दे दिया। कलकत्ता विश्वविद्यालय में सीवी रमन ने कुछ वर्षों में वस्तुओं में प्रकाश के चलने का अध्ययन किया। वर्ष 1921 में रमन विश्वविद्यालयों की कांग्रेस में प्रतिनिधि बनकर ऑक्सफोर्ड गए। जब रमन जलयान से स्वदेश लौट रहे थे तो उन्होंने भूमध्य सागर के जल में उसका अनोखा नीला व दूधियापन देखा। कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुंचकर रमन ने पार्थिव वस्तुओं में प्रकाश के बिखरने का नियमित अध्ययन शुरू किया। लगभग सात वर्ष बाद रमन अपनी उस खोज पर पहुंचे, जो ‘रमन प्रभाव’ के नाम से विख्यात है। उनका ध्यान वर्ष 1927 में इस पर गया कि जब एक्स किरणें प्रकीर्ण होती हैं, तो उनकी तरंग लम्बाइयां यानी तरंगदैर्ध्य बदल जाती हैं। तब प्रश्न उठा कि साधारण प्रकाश में भी ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए?रमन ने पारद आर्क के प्रकाश का वर्णक्रम स्पेक्ट्रोस्कोप में निर्मित किया। इन दोनों के मध्य विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थ रखकर तथा पारद आर्क के प्रकाश को उनमें से गुजारकर वर्णक्रम बनाए। उन्होंने देखा कि हर स्पेक्ट्रम में अन्तर पड़ता है और प्रत्येक पदार्थ अपनी तरह का अन्तर डालता है। श्रेष्ठ स्पेक्ट्रम चित्र तैयार किए गए और उन्हें मापकर तथा गणना करके उनकी सैद्धान्तिक व्याख्या की गई। इस तरह प्रमाणित किया गया कि यह अन्तर पारद प्रकाश के तरंगदैर्ध्य में परिवर्तित होने के कारण पड़ता है। इस तरह रमन प्रभाव का उद्घाटन हो गया। सन 1954 में सर सीवी रमन भारत सरकार द्वारा भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया गया तथा सन 1957 में लेनिन शान्ति पुरस्कार प्रदान किया था। आज भी वह खोज उतनी ही प्रासंगिक हो तो उससे जुड़े वैज्ञानिकों को बार-बार याद करना जरूरी हो जाता है। चन्द्रशेखर वेंकटरमन या सर सीवी रमन एक ऐसे ही प्रख्यात भारतीय भौतिक-विज्ञानी थे, जिन्हें उनके जन्मदिन के मौके पर दुनिया भर में याद किया जा रहा है। उन्हें विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहला एशियाई होने का गौरव प्राप्त है।
उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुके हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।