
उत्तराखण्ड राज्य के जनपद पौड़ी गढ़वाल के यमकेस्वर ब्लाक के थलन्दी,ढांगू ब्लाक के कटघर व ढांडा मंडी में मकरसंक्रांति को गिंदी मेला लगता है जिसमे यह अजीब गरीब खेल खेला जाता है ।
गेंद मेला एक सामूहिक शक्ति परीक्षण का मेला है। इस मेले में न तो खिलाडियों की संख्या नियत होती ही न इसमें कोई विशेष नियम होते हैं। बस दो दल बना लिए जाते हैं और चमड़े से बनी एक गेंद को छीन कर कर अपनी सीमा में ले जाने की रस्साकशी होती है। परन्तु जितना यह कहने सुनने में आसन है उतना असल में नही, क्योंकि दूसरे दल के खिलाड़ी आपको आसानी से गेंद नहीं ले जाने देंगे। बस इस बस इस गुत्थमगुत्था में गेंद वाला नीचे गिर जाता है जिसे गेन्द का पड़ना कहते है। गेन्द वाले से गेंद छीनने के प्रयास में उसके ऊपर न जाने कितने लोग चढ़ जाते हैं। कुछ तो बेहोश तक हो जाते हैं। ऐसे लोगो को बाहर निकल दिया जाता है। होश आने पर वे फिर खेलने जा सकते हैं। जो दल गेन्द को अपनी सीमा में ले जाते हैं वहीं टीम विजेता मानी जाती है। इस प्रकार शक्तिपरीक्षण का यह अनोखा खेल 3 से 4 घन्टे में समाप्त हो जाता है।
इस खेल का उद्भव यमकेश्वर ब्लाक व् दुगड्डा ब्लाक की सीमा “थल नदी” नामक स्थान पर हुआ जहाँ मुगलकाल में राजस्थान के उदयपुर, अजमेर से लोग आकर बसे हैं। इसलिए यहाँ की पट्टियों(राजस्व क्षेत्र )के नाम भी उदयपुर वल्ला, उदयपुर मल्ला,उदयपुर तल्ला एवं उदयपुर पल्ला (यमकेश्वर ब्लाक) व अजमेर पट्टि (दुगड्डा ब्लाक)हैं। थलनदी में यह खेल आज भी यहां के लोगो के बीच खेला जाता है।
*किदवंती है कि इस मेले का सुभारम्भ कब हुआ और क्यो हुआ । इसके पीछे जो तथ्य सुनने को मिले है ।अजमेर पट्टी नाली व उदयपुर पट्टी कस्याळी के मध्य ही इस मेले का सार विधमान है। वो इस प्रकार है नाली गाऊँ की दुल्हन कस्याळी गाऊँ में शादी हो रखी थी। परिवारिक झगड़े के कारण एक दिन लड़की अपने ससुराल से भागकर अपने मायके नाली गाऊँ चली जाती है । उसका पीछा ससुराल के कुछ लोग करते है जी की इस अस्थान थलन्दी में दुल्हन को पकड़ कर अपने साथ वापिस ले जाने लगते है। लेकिन तभी नाली गाऊँ के लोग आसपास खेतोंमें काम कर रहे थे मोके पर आकर उस दुल्हन को उनसे छिनने लगते है इसी छीना झपट्टी में दुल्हन की मौत हो जाती है। तब से हि उनकी याद में यह मेला लगता है व खेल खेला जाता है *।
लेकिन उसके बाद यह मेला पौड़ी जिले के कई अस्थानो पर यह मेला लगता है यमकेश्वर में यह किमसार, यमकेश्वर, त्योडों, में यह खेला जाता है।
द्वारीखाल में यह डाडामंडी व कटघर में खेला जाता है, कटघर में यह उदयपुर व ढागू के लोगो के बीच खेला जाता है।
दुगड्डा में यह मवाकोट (कोटद्वार के निकट ) में खेला जाता है, दुगड्डा में यह मवाकोट में खेला जाता है।
यमकेश्वर में थलनदी के साथ ही किमसार, त्योडों, ताल व कुनाव नामक स्थान पर खेला जाता है। वहीं द्वारीखाल में यह डाडामंडी व कटघर में खेला जाता है जो की उदयपुर व ढागू के लोगो के बीच होता है। इस तरह से यह गेंद मेंला पौड़ी गढ़वाल का एक अनोखा खेल है।
ब्रिटिश शासन मे थे 7 खून माफ-
कहा जाता है कि ब्रिटिशकाल में गेंद मेले में 7 खून माफ थे। और इस खेल को खेलते हुवे कईयों की जान भी चली जाती थी। उस समय बड़ी संख्या में अंग्रेज इस मेले को देखने आते थे। लगभग 200 साल पहले गढ़वाल नरेश व ब्रिटिश हुकूमत के बीच संधि के बाद गंगा-अलकनंदा के उस ओर का क्षेत्र व देहरादून अंग्रेजों के पास चला गया था और पौड़ी ब्रिटिश गढ़वाल कहलाता था। जबकि गढ़वाल का राजा श्रीनगर से अपनी राजधानी टिहरी ले आया था और तब से गढ़वाल नरेश की जगह टिहरी का राजा कहलाया।
कैसे पहुंचे-
आप ऋषिकेश से यमकेश्वर आसानी से पहुंच सकते हैं। यमकेश्वर ऋषिकेश से गंगा पार कर प्रारम्भ हो जाता है। यहाँ पहुंचने के लिए आपको ऋषिकेश से आसानी से टैक्सी मिल जाएगी। हरिद्वार से ऋषिकेश 24 किलोमीटर दूर है। वहीं ऋषिकेश-यमकेश्वर मोटर मार्ग से आप यह मेला देखने लगभग 2:30 घंटे में पहुंच सकते हैं। इस मेले को देखने के लिए आपको जनवरी के महीने में पड़ने वाली मकर सक्रांति पर आना होगा, जो कि पत्रांक के अनुसार 14 या 15 जनवरी को ही होती है।
उस जमाने मे गाऊँ से शहर जाने के लिए कोई वाहन की सुविधाएं नही होती थी लोग कई घण्टो पैदल चलकर घोड़े खचर में जरूरत के समान लादकर लाते थे लेकिन महिलाये घर पर ही रहकर खेत खलिहान का काम करते है। लेकिन उनके रोज के श्रृंगार की वस्तु उनको नही मिल पाता था।इस मेले में विभिन्न ब्यापारी चूड़ी कांडी व मिष्ठान वाले खासतौर पर जलेबी वालो की बहुत दुकान लगती है और मेले के दौरान ही अपने सखा सहेली व रिस्तेदार व दोस्त आपस मे मिल भी लेते थे। ओर महिलाएं अपने लिये सालभर का जरूरत का सामान खरीद लेते है। जो कि सालभर चलाना होता था।