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एवरेस्ट और हिंदुकुश हिमालय के अन्य पर्वत साढ़े तीन हजार किलोमीटर इलाके में फैले हुए हैं। ये पर्वत आठ देशों की सीमा से गुजरते हैं। इन सब पर ग्लोबल वॉर्मिंग का भारी असर देखने को मिला है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट (आईसीआईएमओडी) के मुताबिक अगर कार्बन गैसों का उत्सर्जन अपने मौजूदा स्तर पर ही बना रहा, तो अगले 70 साल में इस क्षेत्र के दो तिहाई ग्लेशियर पिघल चुके होंगे।विशेषज्ञों के मुताबिक गुजरे 60 वर्षों में एवरेस्ट के चारों तरफ मौजूद 79 ग्लेशियरों की मोटाई 100 मीटर घट चुकी है। साल 2009 के बाद उनका आकार घटने की रफ्तार दो गुनी हो गई है। इनमें मशहूर खुम्बु ग्लेशियर भी है, जहां से अधिकतर पर्वतारोही एवरेस्ट पर चढ़ने का अपना अभियान शुरू करते हैं। माउंट एवरेस्ट पर सबसे पहले पहुंचने वाले न्यूजीलैंड के हिलेरी और नेपाल के नोर्गे ने भी अपना अभियान यहीं से शुरू किया था।हिंदुकुश क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का असर तेजी से बढ़ा है। आईसीआईएमओडी के महानिदेशक पेमा ग्यामत्शो ने नेपाल के अखबार द हिमालयन टाइम्स को बताया- ‘पूरे हिंदुकुश हिमालय में ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरनाक प्रभाव काफी समय महसूस हो रहे हैं। गर्म हवाओं, सूखे, प्राकृतिक आपदाओं, अचानक बर्फबारी और ग्लेशियरों के पिघलने का रिकॉर्ड बनता जा रहा है। इस क्षेत्र में रहने वाले दो अरब लोगों की जिंदगी और आजीविका को बचाने के लिए दुनिया को तुरंत ठोस कदम उठाने होंगे।’हिंदुकुश पर्वतीय क्षेत्र में 24 करोड़ लोग रहते हैं। ये लोग पानी के पर्वतीय स्रोतों पर निर्भर हैं। विश्व प्रसिद्ध एथलीट और पर्वतारोही किलियन जॉर्नेट ने द हिमालयन टाइम्स से कहा- ‘एवरेस्ट बहुत तेजी से बदल रहा है। मैंने इसे अपनी आंखों से देखा है कि कैसे जलवायु परिवर्तन का पहाड़ों पर असर हुआ है। ग्लेशियरों के पिघलने के कारण पर्वतारोहियों के लिए पहाड़ अधिक खतरनाक होते जा रहे हैं। उससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि इसका स्थानीय संसाधनों पर निर्भर अरबों लोगों की जिंदगी पर खराब असर हो रहा है।’आईसीआईएमओडी से जुड़े ग्लेशियर विशेषज्ञ ने कहा- ‘हम जैसे जो लोग पहाड़ों का अध्ययन करते हैं, यहीं रहते हैं और पहाड़ों पर चढ़ते भी हैं, उन्होंने अपनी आंखों से यहां हो रहे बदलावों को देखा है। दुनिया के दूसरे हिस्सों में हजारों किलोमीटर दूर जो काम किए जाते हैं, उनका असर यहां दिखता है।’हमें यह अवश्य याद रखना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन का हल निकालने के मामले में हमें बहुत बड़ी ऊंचाइयां अभी चढ़नी हैं। एवरेस्ट पर जिस तरह के बदलाव देखने को मिल रहे हैं, उन्हें भविष्य में सुधारना संभव नहीं रह जाएगा। पहाड़ में पहले की तुलना में कम बर्फ दिखाई देती है, और वह इसका श्रेय जलवायु संकट या पर्यावरणीय परिवर्तनों को देते हैं। वह बताते हैं कि 2000 के दशक की शुरुआत और मध्य में पहाड़ में बहुत अधिक बर्फ थी, लेकिन हाल के वर्षों में यह चट्टानी हो गई है। कई वैज्ञानिक रिपोर्टों से पता चला है कि पिछले वर्षों की तुलना में 21वीं सदी में हिमालय में वैश्विक औसत तापमान में काफी वृद्धि हुई है। एक असंतुष्ट उपयोगकर्ता ने उन लोगों के प्रति निराशा व्यक्त की जो पर्यावरण विज्ञान में विश्वास नहीं करते हैं, जबकि अन्य ने स्थिति की खतरनाक वास्तविकता को स्वीकार किया और पर्यावरण की रक्षा के लिए कार्रवाई करने का आग्रह किया। एक तथ्य यह भी है कि ज्यादातर हिमालयी देशों में, पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग, अन्य क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की तुलना में औसतन गरीब हैं। आर्थिक तौर पर इनके हाशिए पर होने का मतलब यह है कि अक्सर पर्वतीय समुदायों को गवर्नेंस में अनदेखा कर दिया जाता है। इस आशय यह है कि पॉलिसी, इंफ्रास्ट्रक्चर प्लानिंग या आपदा को लेकर पहले से की जाने वाली तैयारियों इत्यादि में उनकी बातों, सुझावों, आकांक्षाओं को कम तरजीह दी जाती है। शोध के निष्कर्ष में कहा गया है, “साउथ कोल ग्लेशियर दुनिया की सबसे सूनी जगहों में से एक है. जब बर्फ का आवरण गायब हो जाता है, तब नंगे ग्लेशियर की बर्फ का पिघलना 20 गुना तेज हो सकता है. यह इस तरह के हिमनदों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जहां बहुत कम हिमपात होता है.कहा गया है, “बर्फ की इस मोटाई को बनने में लगे 2000 वर्षों की तुलना में बर्फ के नुकसान की मापी गई दर 80 गुना तेज है.” पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा 2020 में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंदु कुश हिमालय (एचकेएच) में वार्षिक औसत सतह-वायु-तापमान में 1901-2014 के दौरान प्रति दशक लगभग 0.1 डिग्री सेल्सियस की दर से वृद्धि हुई है और 1951-2014 के दौरान प्रति दशक 0.2 डिग्री सेल्सियस की तापमान वृद्धि दर रही, जो मानवजनित जलवायु परिवर्तन के कारण है।लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।