‘ग्राम सरकारों’ को ‘निगल’ गयी ‘बड़ी सरकार

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  देहरादून– निसंदेह देश ने बहुत तरक्की की मगर यह भी सच है कि जिन गांवों में इस देश की आत्मा बसती है, वो लगातार उजड़ रहे हैं । सरकारों को उनकी कोई परवाह नहीं । जिस देश की कुल आबादी का सत्तर फीसदी से अधिक हिस्सा गांवों में निवास करता है, वहां सरकारी फैसले गांवों को केंद्र में रख कर नहीं होते । अपने यहां कहने को तो गांव सरकार की व्यवस्था है,गांवों को अधिकार भी बहुत हैं लेकिन सिर्फ संविधान की किताब तक । संविधान के 73वें संशोधन के बावजूद ग्राम स्वराज की अवधारणा आज भी हाशिये पर है । राज्यों में ‘बड़ी’ सरकारें पहले तो गांव में ‘छोटी’ सरकारों को बनने नहीं देती और बनने देती हैं तो उन्हें चलने नहीं देती ।

उत्तराखंड को ही देखिये सरकार यहां गांवों को लेकर बड़े बड़े दावे करती है, उजड़ते गांवों की चिंता पर आयोग गठित करती है, ‘चलो गांव की ओर’ जैसे नारे देती है, पंचायतों के चुनावों को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ती है मगर गांव सरकार को मजबूत करने की बारी आती है तो खेल कर जाती है । हाल ही संपन्न हुए चुनावों में बड़ी सरकार के दखल और आनन फानन में पंचायत अधिनियम में मनमाने संशोधन ने पंचायत चुनावों को मजाक बनाकर रख दिया । सरकार की मनमानी का नतीजा सामने है, राज्य के 12 जिलों में 7485 ग्राम पंचायतों में से तकरीबन 4900 ग्राम पंचायतों में ‘ग्राम सरकार’ का गठन नहीं हो पा रहा है । राज्य के करोड़ों रुपए खर्च होने के बाद भी अगर ‘ग्राम सरकारों’ का गठन नहीं हो पा रहा है तो इसका दोषी कौन है ? यह सवाल हवा में तैर रहा है लेकिन सवा करोड़ की आबादी और उसमें से 43 लाख से ग्राम पंचायत क्षेत्रों के मतदाता मौन हैं। इधर सवालों से बेपरवाह सरकार एक बार फिर से एक्ट में संशोधन कर मनमानी की तैयारी है ।


चुनाव के बावजूद प्रदेश की अगर 65 फीसदी से अधिक ग्राम सरकार अगर गठित नहीं हो पायी हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है ‘बड़ी’ सरकार प्रदेश में ‘छोटी’ सरकार को लेकर कितनी गंभीर है । कोई आवाज भले ही न उठा रहा हो, कोई इसका जिक्र भले ही न करे लेकिन प्रदेश में गांव सरकार की इस दुगर्ति की जिम्मेदार निश्चित तौर पर राज्य सरकार ही है । ग्राम पंचायतों की मौजूदा स्थिति राज्य में बड़ा मुद्दा होनी चाहिए थी, दुर्भाग्य यह है कि राज्य में मुद्दे पर बात सरकार ही नहीं विपक्ष और जनता भी नहीं करनी चाहती । क्या यह स्थिति गंभीर नहीं है कि आज राज्य के 12 जिलों में 7485 ग्राम पंचायतों में ग्राम सरकार के लिए निर्वाचन के बावजूद मात्र 2622 निवार्चित ग्राम प्रधान ही शपथ ले पाए हैं । यह स्थिति इसलिए बनी हुई है क्योंकि जिन ग्राम पंचायतों में चुनाव वहां तीस हजार से अधिक ग्राम पंचायत सदस्यों के पद खाली हैं । इन पदों पर निर्वाचन के लिए तो दूर निर्विरोध चुने जाने के लिए भी उम्मीदवार नहीं मिल पाए ।

चुनाव प्रक्रिया के दौरान ही यह स्पष्ट हो चुका था कि इस बार बड़ी संख्या में पद खाली रहेंगे और ‘ग्राम सरकारों’ का गठन नहीं हो पाएगा । जिन बारह जिलों में चुनाव हुए उनमें एक भी जिला ऐसा नहीं है जिसमें शत प्रतिशत क्या उसके आसपास भी ग्राम सरकारें गठित हुई हों । देहरादून और उधमिसंह नगर जिले में भी लगभग 25 फीसदी से अधिक ग्राम पंचायतों में ग्राम सरकारें गठित नहीं हो पायीं । देहरादून में कुल 401 ग्राम पंचायतों में 111 ग्राम पंचायतों का गठन नहीं हुआ है तो उधमसिंह नगर में 376 में से 81 ग्राम पंचायतों में ग्राम सरकार नहीं बनी है । पहाड़ी जिलों में अपवाद स्वरूप एकमात्र रुद्रप्रयाग को छोड़ दिया जाए तो स्थिति बेहद चिंताजनक है ।

पौड़ी, नैनीताल, अल्मोड़ा में तो 85 से 90 फीसदी से अधिक ग्राम पंचायतों में ‘गांव सरकारों’ का गठन नहीं हो पाया है । पौड़ी में तो कुल 1160 ग्राम पंचायतों में से 138 ग्राम पंचायतों में ही ‘ग्राम सरकार’ का गठन हुआ है । अल्मोड़ा जिले में 1169 ग्राम पंचायतों में से 924 ग्राम पंचायतें फिलवक्त बिना ‘ग्राम सरकार’ हैं तो नैनीताल में कुल 479 में 329 ग्राम पंचायतों में ‘ग्राम सरकार’ का गठन नहीं हुआ है । इसी तरह चमोली, चंपावत और बागेश्वर जिलों में भी सत्तर फीसदी से अधिक ग्राम पंचायतों में ‘ग्राम सरकार’ का गठन नहीं हो पाया है चमोली में 433, चंपावत में 233 और बागेश्वर जिले में 299 ग्राम पंचायतों में ‘ग्राम सरकार’ का गठन नहीं हुआ है । पिथौरागढ़ की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं है वहां भी 690 ग्राम पंचायतों में से 435 ग्राम पंचायतों में ग्राम प्रधान शपथ नहीं ले पाये हैं । टिहरी और उत्तरकाशी जिलों की स्थिति अन्य जिलों की अपेक्षा थोड़ा बेहतर जरूर है लेकिन आंकड़ा यहां भी काफी बड़ा है उत्तरकाशी में 504 में से 265 और टिहरी में 1030 में से 550 ग्राम पंचायतों में ‘ग्राम सरकार’ नहीं बनी है ।

अब इन हालात में कैसे मान लिया जाए कि सरकार गांवों के प्रति गंभीर है संजीदा है । आखिर कैसे यकीन किया जाए सरकार की उस मंशा पर जिसके चलते दो साल पहले उसने पलायन आयोग का गठन किया । राज्य का पलायन आयोग वाकई कोई जमीनी काम कर रहा है, इसमें शक है । आयोग ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का कोई रास्ता तलाश रहा है, यह दावा भी पूरी तरह हवा हवाई नजर आता है । सच्चाई यह है कि पलायन आयोग धरातल पर काम कर रहा होता तो मौजूदा स्थिति को काफी पहले भांप चुका होता । पलायन आयोग वास्तविक रूप में ग्राम पंचायत स्तर तक पहुंचा होता तो सरकार को चेताता कि पंचायत अधिनियम से ऐसा संशोधन न किया जाए जो ग्राम सरकारों के गठन में बाधक बन जाए । तमाम स्थितियां सामने हैं, अब कुछ नहीं, सिर्फ कल्पना कीजिये कि जिन गांवों को हम अपनी अर्थव्यवस्था की रीढ़ बताते हैं, उनका भविष्य क्या है ?

कहां तो तय था कि गांवों को मजबूत करने के लिए ग्राम सरकारों को अधिकार संपन्न बनाया जाएगा, संविधान के 73वें संशोधन के मुताबिक उन्हें अधिकार सौंपे जाएंगे, लेकिन यहां तो हालात विपरीत हो चले हैं । तकरीबन 40 हजार से अधिक सदस्यों के पद ग्राम पंचायतों में खाली हैं, इससे लगभग 4900 ग्राम पंचायतें प्रभावित हो रही हैं । नियमानुसार पंचायत गठन यानि ग्राम सरकार के गठन के लिए दो तिहाई सदस्यों का कोरम जरूरी है, बिना कोरम के ग्राम प्रधान और सदस्यों की शपथ नहीं हो सकती है और बिना शपथ के पहली बैठक नहीं की जा सकती । अब सरकार से कौन यह पूछेगा कि जब ग्राम सरकार ही नहीं होगी तो ग्राम विकास कैसे होगा, कैसी परदर्शिता होगी और कैसा सुशासन होगा ?

बहरहाल ,जब प्रदेश में 65 फीसदी से अधिक ग्राम पंचायतों का गठन ही नहीं हो पा रहा है तो उनमें 74वें संशोधन के मुताबिक अधिकारों की तो बात भी बेईमानी है । ऐसा लगता है मानो सब कुछ साजिशन चल रहा है । सरकार ने चुनाव से पूर्व पंचायत एक्ट में जो संशोधन किये वह भी इसी का हिस्सा है । देखिए कैसी विड़बना है कि राज्य में इस बार पंचायत चुनाव दोहरे मानदंडों पर हुआ । सरकार ने ग्राम पंचायत एक्ट में व्यवस्था की कि तीन या तीन से अधिक बच्चों वाले पंचायत चुनाव नहीं लड़ पाएंगे, इस व्यवस्था को जब न्यायालय में चुनौती दी गयी तो न्यायालय ने ग्राम प्रधान का चुनाव लड़ने के तीन या तीन से अधिक बच्चों वाले प्रतिबंध को समाप्त कर दिया । आश्चर्य देखिए यह प्रतिबंध सिर्फ ग्राम प्रधान पद के लिए ही समाप्त हुआ क्योंकि न्यायाल में अपील ग्राम प्रधान पद की योग्यता के लिए की गयी थी, बाकी पदों पर मसलन क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत के पदों पर यह प्रतिबंध इस तकनीकी पेच के चलते लागू रहा ।

सरकार पंचायत एक्ट में संशोधनों पर कितनी गंभीर थी यह इससे जाहिर होता है कि चुनाव से ठीक पहले जो पंचायत राज संशोधन एक्ट 2019 सदन में पास कराया गया, उसमें तमाम कमियां थीं । सदन में पारित कराया गया यह विधेयक नगर निकाय अधिनियम का कापी पेस्ट था । इधर पता चला है कि सरकार ग्राम पंचायतों में उत्पन्न हुई इस स्थिति से निपटने के लिए एक बार फिर से पंचायती राज एक्ट में संशोधन की तैयारी में है । इस तरह के संकेत हैं कि पहले एक्ट में संशोधन होगा और उसके बार ही खाली पदों पर निर्वाचन किया जाएगा । बहरहाल, इसके बाद ही शेष 65 फीसदी ग्राम सरकारें वजूद में आएंगी, आएंगी या नहीं यह पूरी तरह कहा नहीं जा सकता ।

कुल मिलाकर जिस तरह से बड़ी सरकार गांव सरकार को निगल रही है, वह बेहद दुखद है । दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि यह सब उस दौर में है देश भर में ग्राम स्वराज की परिकल्पना करने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का 150वां जयंती वर्ष मानाया जा रहा है । देश भर में गांधी दर्शन पर बड़े कार्यक्रम और व्याख्यान चल रहे हैं, मगर सरकारें भूल रही हैं कि गांधी के सपनों के भारत का मूल ग्रामीण स्वाशासन की सशक्तता था । सनद रहे कि लोकतंत्र की असल सफलता तभी है जब शासन के सभी स्तरों पर जनता की भागीदारी सुनिश्चित हो, इतिहास इसका गवाह है । सरकारों को यह सही से याद रहना चाहिए कि भारत के इतिहास में वही शासन व्यवस्थाएं सफल रही हैं, जिनकी पंचायत आधारित व्यवस्थाएं अच्छी रही हैं । यही नहीं इससे भी सचेत रहना चाहिए कि वही क्रांति और आंदोलन हमेशा सफल रहे हैं जिनके केंद्र में गांव और किसान रहा है ।

वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट जी की एफबी वाल से साभार

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